१-बात लगभग पचपन वर्ष पुरानी है ,मैं अपने गाँव अपने किसी छोटे भाई
या बहिन को लेकर बस से ग्वालियर से जा रहा था |बस अड्डे पर ही उसने
कहा प्यास लगी है ,मैं उसे लेकर बस से नीचे उतरा और उसे पानी पिलाया
और में वापिस मुड़ा ही था कि पानी वाले ने आवाज लगाई और कहा ,कि,
पैसे तो देते जाओ ,पानी क्या मुफ्त में आता है |चुपचाप पैसे देकर हम बस
में बैठ गए | बस चल दी ,एक -डेढ़ घंटे के बाद बस मुरेना ( जिसे बाहर
के लोग --) पहुंची साथ के बच्चे ने फिर पानी माँगा ,में फिर उसे लेकर
नीचे उतरा और पानी पिलाकर ,पिलाने वाले को पैसे देने लगा ,तो पलटकर
बोला " काये मोय नरक में भेजेगो का '-अभी तक टका है स्मृति पटल पर
सूखे गुलाब ,हिलते हाथ या ' कोई ' -आँखे तो फिर भी धुंधली पड़ गयी
हैं पर ये चित्र नहीं |
२ मैं कॉलेज में पढने लगा था ,मेरे कॉलेज का पुराना नाम -विक्टोरिया कॉलेज
था और १९५७ में महारानी लक्ष्मीबाई कॉलेज किया गया था |पांच-सात हजार
विद्यार्थियों की संख्या रही होगी | छात्र जीवन के १९५९ वर्ष में ,चुनाव लड़ने की
उमंग उठी |मेरे महाविद्यालय के दो कैम्पस थे ,एक में विज्ञानं और दूसरे में
कला,कानून और वाणिज्य थे | मुझे किसी ने खड़ा नहीं किया था ,हाँ दूसरे
कैम्पस में मेरा एक दोस्त ( आज वह नहीं है उसकी स्मृति को नमन ) था ,
हम दोनों ही साथ थे | राजनीति ' करने ' से तब भी परहेज था और आज भी है |
राजनीति करने और राजनीति समझने में अंतर है | मेरे कैम्पस से दो उम्मीदवार
थे , दूसरे कैम्पस से केवल एक | दूसरे कैम्पस से जो उम्मीदवार थे ,उनसे लोग
भयभीत थे ,ऐसा मुझे बाद में पता लगा था |खैर ! में चुनाव आराम से जीत गया
गया |कुल छै रुपये का खर्चा आया | लोगों का अनुमान था जीतने के बाद मेरी
पिटाई होगी ,ऐसा कुछ हुआ नहीं| शपथ ग्रहण में अंडे जरुर फ़िके थे | धीरे धीरे
वह विरोध समाप्त हो गया था और सब सामान्य हो गया था | मैंने एक आई .ऐ .
एस .( मुख्य के सचिव स्तर) अधिकारी को एक जज के रूप मे बुला लिया था
इस पर मेरे शिक्षक सलाहकार की डाट सुननी पड़ी थी | क्या सोचकर बुलाया
है तुमने , कि , I .A .S . कॉलेज प्रोफेसर से बड़ा होता है |मेरे हाँ कहने पर मन
के परदे पर पड़े तमाम जाले झाड दिए थे |किसी सन्दर्भ में -अधिकारी जी का एक
कथन -जब विद्यार्थी अकेला बहुत आज्ञाकारी ,जब दो तो आज्ञाकारिता मे कुछ
कमीं ,जब तीन तो आज्ञाकारिता कि कोई उम्मीद नहीं और जब चार तो भीड़ हैं
आप अपनी सुरक्षा का ध्यान रखिये |इन्ही अधिकारी के एक दामाद मेरे
विश्वविद्यालय मे भूगोल विभाग के अध्यक्ष थे और फिर वो रेक्टर और कुलपति
भी हुए और १९५९ का उनके ससुर साहेब का कथन हम दोनों के बीच में एक
सेतु रहा (उनकी स्म्रतियों को नमन )-अभी तो फिल्म बाकी है मेरे पाठक (यदि
कोई है तो )
फिर ६० में दूसरा चुनाव कुल तीन रुपये के खर्चे में जीता उपाध्यक्ष पद का ,बिना
किसी ऐसी हलचल के जो याद हो| अब ६१ में मेरा कैम्पस स्वतंत्र कॉलेज हो
गया और उसका नामकरण हुआ -गवर्मेंट साइंस कॉलेज ,उसका स्वर्ण जयंती वर्ष
मनाया जा रहा है ,उस के छात्र-संघ के अध्यक्ष पद का चुनाव भी जीता | चुनाव ,
लड़ने की पात्रता केवल मेरी थी ,में निर्विरोध ही बनता यह हजम नहीं हो रहा था
तो चुनाव सम्बन्धी नियमों में संशोधन कर ,चुनाव हुए और तेरह रु.आठ आने
के खर्चे में यह चुनाव भी जीता ( इस जीत के एक गवाह इस ई -कविता समूह मे
हैं ) | हड़ताल करते थे ,तो जबरदस्ती नहीं होती थी ,कॉलेज बेल बजा कर आव्हान
करते थे ,और लड़के निकल आते थे | पर केवल ऐसा ही नहीं था |१९५० में
छात्रों का आन्दोलन हो रहा था और गोली कांड हो गया था | दो छात्र स्कूल के मारे
गए थे ९ अगस्त को (हरी सिंह -दर्शन सिंह ,जो बेचारे कक्षा नौवी मे पढ़ते थे ,तब भी
कोई काला डायर था ,अन्यथा ----), इस दिन आज भी स्कूल बंद कराते है बच्चे
मैं जब पूछता हूँ ,क्यों तो बता नहीं पाते हैं और मे भी नहीं बताता हूँ क्योंकि
अभी उस पुलिस अधिकारी को ले कर उबाल आ आता है ,अब तो सब स्म्रतियों को
नमन | छात्र जीवन से विदा हुए १९६२ जून मे |
क्रमशः-----अगले अंक मे
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