samvad
Tuesday, 17 July 2012
Wednesday, 30 November 2011
Rashtraniti
मित्रो एक लम्बे अरसे बाद ,कुछ लिख रहा हूँ ,इस बीच घटा भी बहुत कुछ है |थोड़ी उहा-पोह भी है ,कि,'नेट' पर चल रहे संवाद के ओर -छोर मिल नहीं पा रहे ,तो सोचा अपनी बात ही कह डालूं |अच्छी चर्चा चलेगी ,तो बढ़िया नहीं चलेगी ,तो भी बढ़िया मेरी 'भड़ास'निकल जाएगी |
अभी ,मैं भारत एक राष्ट्र है और जहाँ , राज करने के लिए प्रजातान्त्रिक प्रणाली लागू है ,विषय पर अपने विचार रख रहा हूँ |
व्यवाहरिक रूप में जहाँ पचास 'गीदड़' और ,एक लोमड़ी मिलकर ,उनंचास 'शेरो' 'पर राज कर सकते हैं | दर्द ये है कि, एक राष्ट्र के निर्माण में लगी आहुतियों को
' आज 'के लोग इतनी जल्दी भुला क्यों देतें है ?दुर्भाग्य ये भी है कि सही इतिहास लिखने में इनकी 'नानी क्यों मरती है '? क्या केवल इसलिए कि, जिनको ये 'भद्र' लोग बढ़ा-चढ़ा के पेश करते हैं ,'वो 'निहायत ही 'बौने' साबित होंगे उनके सामने जिनको ये भुला देना चाहते है |मैं 'भावनाओं में जीता हूँ ',मेहनत की रोटी खायी और खिलाई है बुद्धि का उपयोग रक्षा के लिए करता हूँ ,शोषण के लिए कदापि नहीं |कुलाधिपति,कुलपतियों,को आयना दिखाया है ,जरुरत पड़ने पर उत्पाती समूहों पर सफल नियंत्रण किया है अपने 'आत्मबल' के साथ |इसके पीछे ,राणा प्रताप ,शिवाजी,भगत सिंह ,चन्द्र शेखर आजाद ,राम प्रसाद 'बिस्मिल',सुभाष चन्द्र बोस की तस्वीरें बचपन से घर में देखी हैं ,घर में साधू-संतों की सेवा , पूजा पाठ का माहौल भी मिला , साहित्यिक चर्चाएँ भी मिली ,इन सबने जो संस्कार निर्मित किये वो मेरी 'पूंजी 'बन गए ,संबल बन गए |
इसी आधार पर क़ुरबानी करने वाले मेरे 'नायक'रहे ,और अभी भी हर क़ुरबानी
के लिए तैयार व्यक्ति मेरा नायक है ,सुविधा-भोगी या सुविधा पर बिका व्यक्ति
मेरी drasti (नजर )में एक साधारण व्यक्ति है |
१५ अगस्त १९४७, को मिले 'खंडित' भारत को सत्ता हस्तांतरण में कुर्सी हस्तगत
करने वाले साधारण व्यक्ति तो अंग्रेजों के 'चाटुकार'ही थे ,और अंग्रेजों ने ही अपनी सुविधा के लिए ,उनके यहाँ से चले जाने के बाद भी उनके ही हितों की रक्षा कर सकें वह तमाम भद्र लोग |तरह-तरह के टोटकों ,तदर्थ -वाद से देश की
शिक्षा ,स्वास्थ्य,शासन चलाने लगे और केवल और केवल कुर्सी पर काबिज
होने की योजनाओं के लिए ' राजनीति 'में डूबे रहे और 'राष्ट्रनीति' बनाने से
कतराते रहे |न अतीत से सीखा ,न जापान से ,न इसराइल से |बात आधी-अधूरी
सी लग सकती है ,पर समझदारों के लिए पूरी है |
जरुरत राष्ट्रनीति की है ,जहाँ नक्सलप्रेमी ,कश्मीर पर जनमत संग्रह ,
अख़बारों की सुर्ख़ियों में रहने का सपना पालनेवाले या 'मेगसेसे 'पाने
की होड़ में लगे छद्म बुद्धिजीवी को उसकी सही जगह पर बैठाया जा सके
और सीमाओं की रक्षा में लगे लोगो की क़ुरबानी का मजाक बनाने वालों
को सबक सिखाया जा सके |
छिछोरी 'राजनीति' की नहीं
Tuesday, 29 November 2011
Development of education
Any education at any level if involves the ' Thought Process',can best be delivered in the respective mother tounge only .
An attempt ,in this direction in early sixties in Bombay municipal schools
under the direction of scientists from TIFR is worth mentioning .Text
books for post primary i.e.6th,7th&8th classes science were developed
in Marathi ,at least the basic process at that level was given full liberty to grow and it yielded encouraging results .Taking a step ahead ,later a groupagain led by one from TIFR together with a small group drawn from IITK,DU & few locals tried in the state of Madhya-pradesh at BANKHEDI avillage in Hoshangabad district under the banner of Kishore-Bharti ,by publishing a book बाल-वैज्ञानिक in Hindi for the same level .The results were encouraging .
This type of activity ,in the year 1974 was started
in the state of U.P.in Banda districit at village Atarra under the banner
of Science Education Centre adding few more dimensions beside science teaching in Hindi .
This group took inspiration from the attainments of scientists who through their 'own' languages ,in particular ,Russians & Japanis. .Interacting with the scientists with those countries ,found that they
were strong at science ,however ,very poor at English ,the language
championed by a certain 'class'of people.
Beside ,this a sense of pride if to be realised then ,own language,
own dress ,own religion as a NATION ,becomes a natural need .
I am highly impressed by the people of Maharashtra and people of
South,for preserving and propagating the native food,native dress and
native culture .I am neither against any language nor any person ,but
thought to share my first -hand-experience with the learned group ,
hence a very humble submission .
Mahipal
,Oct.24,2011,Kasmada House,Gali no.2,Ajad Nagar,Morar,Gwalior,
M.P. 474006
एक रचना
धुंआ उट्ठा है अगर ,
आग तो कहीं होगी ही ,
हवा है ,पानी है अगर,
जिन्दगी तो होगी ही ,
मोहब्बत है अगर ,
दीवानगी तो होगी ही ,
शेर है ,शराब है अगर ,
जवानी तो होगी ही ,
मैं हूँ और तू है अगर ,
कहानी तो कोई होगी ही |
महिपाल ,१३ जून ,२००३ ,ग्वालियर
(प्रेषित २२ अक्टोबर,२०११ ,ग्वालियर )
चिरंतन-सत्य
मेरे दोस्त ,
ईमानदार आदमी बहुत खतरनाक होता है ,
वह अपने कपाट तो खोल कर ,
रखता ही है ,
औरों के कपाट भी ,
बिना बताएं ,बिना खट खटाए ,
धक्का मार के खोल देता है ,
ईमानदार आदमी बहुत खतरनाक होता है ,
मेरे दोस्त ,
ईमानदार आदमी ------
ईमानदार आदमी ---
वह मुखौटा तो कोई ओढ़ता नहीं ,
औरों के मुखौटे को भी तलवार की ,
आड़ी मार से तोड़ देता है ,
विपरीत रास्ते मोड़ देता है,
मेरे दोस्त ,ईमानदार आदमी ----
मेरे दोस्त
ईमानदार आदमी ,
वह खुद तो धधकता ही रहता है ,
बर्फ के पुतलों में भी ,
कुछ हरकत हो ,इस कोशिश के साथ ,
दियासलाई रगड़ देता है
ईमानदार आदमी बहुत--
मेरे दोस्त ,
ईमानदार आदमी ,
चूँकि वह चैन की नींद सोता है ,
उसका खजाना उसके पास होता है ,
भरी महफ़िल में वह औरों पर ,
सवार होता है ,अपनी जमीर अपने पास रख,
औरों की गिरफ्त से दूर होता है ,
ईमानदार आदमी --
मेरे दोस्त ,ईमानदार आदमी बहुत --
ईमानदार आदमी ,
औरों के राज तो उसके ,पास तो होते हैं ,
पर उसका कोई राजदार ,
नहीं होता है ,
और चलते हैं ,छुप-छुप कर ,
डर - डर कर ,वह सरे-आम ,खूंखार होता है ,
ईमानदार आदमी बहुत ---
मेरे दोस्त , ईमानदार आदमी बहुत ----
ईमानदार आदमी ,
वह औरों के हांके हकता नहीं ,
छद्म ताकत के सामने झुकता नहीं ,
मोड़ने से मुड़ता नहीं ,
तोड़ने से तुड़ता नहीं ,
जोड़ने से जुड़ता नहीं ,
तोड़ने ,मोड़ने ,जोड़ने की ,
'साजिश ' में लीन लोगों को,
ऐसा आदमीं ,नागवार होता है ,
इसीलिए ईमानदार आदमीं
बहुत खतरनाक होता है ,
मेरे दोस्त ,
ईमानदार आदमी बहुत -----
ईमानदार आदमी ,
'बे-ईमान'तो जीते जी 'लाश'होते हैं ,
जबकि 'इसका 'मरने के बाद ,
'भूत' जिन्दा होता है ,
इसीलिए आज महा-भारत का
पर्याय ,'गुजरात 'होता है ,
ईमानदार आदमी ,
बहुत खतरनाक होता है ,मेरे दोस्त ,
ईमानदार आदमी |
महिपाल ,(रचना-काल ,जुलाई १९७४ ,अब तक डायरी में कैद )
मुक्ति-दिवस ३१ अक्तूबर ,२०११ ,रात्रि ११.३९
व्यापार
एक आये ,
उन्होंने बनाया था कोई तेल ,
पता नहीं उन्होंने बनाया था ,
या कहीं पाया था ,
पर वे बेच रहे थे ,
बार -बार कहते थे ,
कि शुद्ध ब्राम्ही आंवला तेल है ,
बड़े गुण है ,
सिर में ठंडक रखता है ,
लगाने से चित्त प्रसन्न रहता है ,
और स्वाभाविक ही ,
काम करने का माद्दा बढ़ता है ,
अधिक काम करने से ,
आर्थिक स्थिति सुधरती है |
फिर ,कहीं से ,
एक और आये ,
वह भी लिए थे तेल ,
ब्राम्ही आंवले का ,
दोनों के तेल एक से थे ,
उनमें ,अधिक तेल बेचने की ,
प्रतिस्पर्धा जन गयी ,
देखते ही देखते ,
बात ही बात में ,
दोनों में ठन गयी ,
अब वे आंवले के गुणों को छोड़ ,
उसके ' मेक ' पर उतर आये थे,
और 'मेक ' के प्रचार में ,
जाने क्या -क्या गुल खिलाये थे ,
किसी के केश लहराहे थे ,
तो किसी के कपडे उतरवाए थे ,
' मेक ' की बात भीड़ ,
की समझ में नहीं आई ,
आंवले को गुणों को समझने वालों ,
में से किसी एक ने ,
अपना आंवला ले ,
अपना ही तेल बनाया ,
तो, दोनों के मुंह ,लटक गए ,
वे कुढ़ गए ,चिढ गए |
अब तो दोनों यही कह रहे थे,
कि मेरा तेल ,तेल है ,
उसके में मिलावट ,
दूसरा और नीचे गिरा या ऊपर चढ़ा ,
सिवा मेरे कोई नहीं बना सकता ,
बिना मेरी ' प्रोसेसिंग ' के नहीं बनता तेल,
भीढ़ में से किसी ने कहा ,
भाई आंवले में गुण बहुत है ,
फिर ' मेक ' और ' प्रोसेसिंग से क्या वास्ता ,
वे नाराज ,हो गए ,
क्योंकि वे ,
ख़ाली तेल ही नहीं बेच रहे थे ,
वरन ,झोले में छिपाए थे ,
कुछ हथगोले और पिस्तोल ,
ऐसा ही एक तेल बेचने वाला ,
पहिले ,भी आया था ,
सोलहवीं सदीं में ,
जहाँगीर के दरबार में ,
जिसकी त्रासदी भुगती है ,
पूरे चार सो बरस ,
हम ,हमारे बेटे ,
संभवतः बेटों के बेटे ,
अभी और भुगतेंगे |
फिर शायद ,उभर पायें ,उबर पायें ,
इन मानसिक व्याधाओं से ,
या कि प्राचीन सभ्यता से ,
गुरु और गुरुतर ,
भार सोंपे जा रहे हैं ,
जिंदगी के ये हसीं लम्हे ,
हम उनमें जी भी नहीं सकते ,
अपना कह कर भोग भी नहीं पाते |
सारी दुनियां,
और उनके साथ मिलकर ,
कुछ ,हमारे अपने दुभाषिये ,
हमें ' सभ्य ' बनाना चाहते है ,
छीन कर,
हमारी ' रोटी ',
और ' लंगोटी ' ,
हमें ' बटर ' ,और ,
' टेरीन 'से लड़ना चाहते हैं |
हम सुन रहे हैं ,
सुन ही नहीं ,वरन ,
भुगत रहे हैं ,
ये ,प्रचार -प्रसार ,
देख रहे हैं ,उसके प्रकार ,
और चलता हुआ ,
यह सारा ----------व्यापार |
हमें जीने की कला ,
न सिखाओ ,
चूँकि ,हमारा ,
जीने का अलग ही ---- आधार |
-महिपाल
( यह रचना अमेरिकी प्रभाव के अनावश्यक दबाब को चुनोती
देने वाला वातावरण बनाने का एक छोटा सा प्रयास था -रचना काल 1972,स्थान ,210-campus , I.I.T.Kanpur -16 )
Friday, 23 September 2011
परशुराम तुम ....?
परशुराम , तुम क्रोधित क्यों हो ? ,
क्यों तो ' ये 'गुस्सा फूटा है ,
परशुराम आश्वस्त रहो तुम ,
नहीं कहीं भी ' धनु ' टूटा है ,
परशुराम तुम क्रोधित क्यों हो ?
नहीं जरुरत 'थू -' या ' छी-' की |
चिंगारी जब उठे ,शमन कर ,
बढ़ें ,जो ,आगे
तो कभी नहीं ये बक -बक होगी ,
बढ़ती जाती बात,लगाती आग ,
रोकें ,गर जो स्व-विवेक से ,
तो कभी नहीं ये झक-झक होगी |
ईश्वर , ने जब रचे रंग है ,रंग रहेंगे ,
दिखने में ,वे भले ' श्वेत ' हों ,
पानी की बूंदों में ' वे ' अलग दिखेंगे ,
' इन्द्र-धनुष का खिलना भी तो ,
एक छटा है ,
' हस्ताक्षर ' है इस धरती पर ,कहीं,
कुछ ' गेय ' घटा है
इससे तो बस ,आग बढ़ेगी ,
कौन जलेगा ,कौन बचेगा ,
अर्थ-हीन है ,लेकिन तय है ,
कविता ही , क्षत- विक्षत होगी ,
आगे राज तुम्हारा ,तुम जो चाहो ,
लेकिन भय है ,
बनी हुई ये सुन्दर ' मूरत ',
खंडित होगी ,
परशुराम तुम क्रोधित हो ,तो ,
शमन करो ये क्रोध ,
और फेंको ये फरसा ,
मीठे-मीठे गीत सुने बिन ,
बीता लम्बा ---------- अरसा ||
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