Friday 23 September 2011

परशुराम तुम ....?


 परशुराम , तुम क्रोधित क्यों हो ? ,
 क्यों तो ' ये 'गुस्सा फूटा है ,
 परशुराम आश्वस्त रहो तुम ,
 नहीं कहीं भी ' धनु ' टूटा है ,
 परशुराम तुम क्रोधित क्यों हो ?  
 नहीं जरुरत 'थू -'  या  ' छी-' की |
चिंगारी जब उठे ,शमन कर ,
 बढ़ें ,जो ,आगे 
तो कभी नहीं ये बक -बक होगी ,
बढ़ती जाती बात,लगाती आग ,
रोकें ,गर जो स्व-विवेक से ,
 तो कभी नहीं ये झक-झक होगी | 
ईश्वर , ने जब  रचे रंग है ,रंग रहेंगे ,
दिखने में ,वे भले ' श्वेत ' हों ,
 पानी की बूंदों में ' वे ' अलग दिखेंगे ,
' इन्द्र-धनुष का खिलना भी तो ,
 एक टा है ,
 ' हस्ताक्षर ' है इस धरती पर ,कहीं,
 कुछ ' गेय ' घटा है   

इससे तो बस ,आग बढ़ेगी ,
कौन जलेगा ,कौन बचेगा ,
अर्थ-हीन  है ,लेकिन तय है , 
कविता ही  , क्षत- विक्षत होगी ,
आगे राज तुम्हारा ,तुम जो चाहो ,
लेकिन भय है ,
बनी हुई  ये सुन्दर ' मूरत ',
खंडित  होगी ,

परशुराम तुम क्रोधित हो ,तो ,
शमन करो ये क्रोध ,
और फेंको ये फरसा ,
मीठे-मीठे  गीत सुने बिन ,
बीता लम्बा ---------- अरसा ||

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