परशुराम , तुम क्रोधित क्यों हो ? ,
क्यों तो ' ये 'गुस्सा फूटा है ,
परशुराम आश्वस्त रहो तुम ,
नहीं कहीं भी ' धनु ' टूटा है ,
परशुराम तुम क्रोधित क्यों हो ?
नहीं जरुरत 'थू -' या ' छी-' की |
चिंगारी जब उठे ,शमन कर ,
बढ़ें ,जो ,आगे
तो कभी नहीं ये बक -बक होगी ,
बढ़ती जाती बात,लगाती आग ,
रोकें ,गर जो स्व-विवेक से ,
तो कभी नहीं ये झक-झक होगी |
ईश्वर , ने जब रचे रंग है ,रंग रहेंगे ,
दिखने में ,वे भले ' श्वेत ' हों ,
पानी की बूंदों में ' वे ' अलग दिखेंगे ,
' इन्द्र-धनुष का खिलना भी तो ,
एक छटा है ,
' हस्ताक्षर ' है इस धरती पर ,कहीं,
कुछ ' गेय ' घटा है
इससे तो बस ,आग बढ़ेगी ,
कौन जलेगा ,कौन बचेगा ,
अर्थ-हीन है ,लेकिन तय है ,
कविता ही , क्षत- विक्षत होगी ,
आगे राज तुम्हारा ,तुम जो चाहो ,
लेकिन भय है ,
बनी हुई ये सुन्दर ' मूरत ',
खंडित होगी ,
परशुराम तुम क्रोधित हो ,तो ,
शमन करो ये क्रोध ,
और फेंको ये फरसा ,
मीठे-मीठे गीत सुने बिन ,
बीता लम्बा ---------- अरसा ||
No comments:
Post a Comment