Friday 23 September 2011

laghu-shabd chitra


एक सुवासित कक्ष में,बेतरतीब ढंग से कुछ कुर्सियां पड़ी रहती थी,लोग 
( महिला और पुरुष ) सप्ताहांत में वहां एकत्रित होते थे | कुछ के  पास 
समय अधिक था ,वे तो रोज मिलते थे कभी -कभी तो एक ही दिन में 
कई बार मिलते थे | अपने-अपने स्वभाव अनुसार विषय का चुनाव कर 
चर्चाएँ ,बात-चीत किया करते थे |कभी-कभी संख्या बढ़ जाती थी ,तब,
छोटे -छोटे गोल बनाकर बैठ जाया करते थे ,और दूर बैठे लोगों से हवा 
में हाथ लहराकर ,अभिवादन का आदान-प्रदान भी कर लेते थे | कभी-कभी 
मन होता तो सभी लोग एक ही बड़े गोले में बैठते थे ,तब बेंतबाजी शुरू 
कर खूब मनोरंजन करते थे ,खान  -पान भी चलता था ,गेय गीत ,गजल,
शास्त्रीय-संगीत ,कविता -अकविता ( कोई नया व्यक्ति /मेहमान भी कुछ 
कहे/पढ़े तो उसका सब उत्साह-वर्धन करते ), कुछ ' कनफुसिया ' भी 
चलती |कक्ष की एक विशेषता थी ,कि,वह  चोबीसों घंटे खुला रहता था 
कुछ लोगो को रात में बैठने का समय मिल पाता था , 
तो एक गड़बड़ भी कभी-कभी हो जाया करती थी ,
कमरे में घुसते और  बातों को पूरा सुने ,
पूरा समझे बिना चलती बहस में कूद पड़ते,फिर क्या होता ?
आधे सोये आधे जागे ,
कुर्सियां जो ,बेतरतीब पड़ीं होती या गोलाकार वे धीरे धीरे आमने-सामने हो जाती 
और चल पड़ती बहस ,कभी सार्थक भी ,लोग खेमों में बटे साफ-साफ दिखते ,
तभी कुछ लोग सिगार,सिगरेट,या पान-बीडी खैनी के लिए बाहर निकल आते 
और तारो-ताज़ा होकर अपनी -अपनी 'साइड' बैठ जाते ,और कुछ दर्शक-दीर्घा 
में बैठ जाते ,और तालियाँ   पीटते आंखे बंद करके ,कुछ आंखे खोलकर ताकि 
कुछ हंगामा -सा होता रहे और T.R.P.बढती रहे |कुछ अन्वेषी कमरे में घुसते 
ही लोगो के लाल-लाल चेहरे देख कर चकरा जाते कि ,ऐसा क्या हो गया है ,जो,
सब तने बैठे हैं | धीरे ---धीरे पड़ताल करने पर पता चलता है ,कि,
कुछ  सामान चोरी हो गया है ,उसकी पड़ताल में लगे हैं लोग ,तभी पता लगता
है कि समानता की वजह से उठ गया था  ,चोरी का कोई इरादा ही नहीं था |
उम्मीद तो यही है कि भ्रान्ति  मिट गयी होगी और कुर्सियां फिर ,पहिले की 
तरह से सज गयीं होंगी ,अब ---
महिपाल   
        

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