Friday 23 September 2011

परशुराम तुम ....?


 परशुराम , तुम क्रोधित क्यों हो ? ,
 क्यों तो ' ये 'गुस्सा फूटा है ,
 परशुराम आश्वस्त रहो तुम ,
 नहीं कहीं भी ' धनु ' टूटा है ,
 परशुराम तुम क्रोधित क्यों हो ?  
 नहीं जरुरत 'थू -'  या  ' छी-' की |
चिंगारी जब उठे ,शमन कर ,
 बढ़ें ,जो ,आगे 
तो कभी नहीं ये बक -बक होगी ,
बढ़ती जाती बात,लगाती आग ,
रोकें ,गर जो स्व-विवेक से ,
 तो कभी नहीं ये झक-झक होगी | 
ईश्वर , ने जब  रचे रंग है ,रंग रहेंगे ,
दिखने में ,वे भले ' श्वेत ' हों ,
 पानी की बूंदों में ' वे ' अलग दिखेंगे ,
' इन्द्र-धनुष का खिलना भी तो ,
 एक टा है ,
 ' हस्ताक्षर ' है इस धरती पर ,कहीं,
 कुछ ' गेय ' घटा है   

इससे तो बस ,आग बढ़ेगी ,
कौन जलेगा ,कौन बचेगा ,
अर्थ-हीन  है ,लेकिन तय है , 
कविता ही  , क्षत- विक्षत होगी ,
आगे राज तुम्हारा ,तुम जो चाहो ,
लेकिन भय है ,
बनी हुई  ये सुन्दर ' मूरत ',
खंडित  होगी ,

परशुराम तुम क्रोधित हो ,तो ,
शमन करो ये क्रोध ,
और फेंको ये फरसा ,
मीठे-मीठे  गीत सुने बिन ,
बीता लम्बा ---------- अरसा ||

laghu-shabd chitra


एक सुवासित कक्ष में,बेतरतीब ढंग से कुछ कुर्सियां पड़ी रहती थी,लोग 
( महिला और पुरुष ) सप्ताहांत में वहां एकत्रित होते थे | कुछ के  पास 
समय अधिक था ,वे तो रोज मिलते थे कभी -कभी तो एक ही दिन में 
कई बार मिलते थे | अपने-अपने स्वभाव अनुसार विषय का चुनाव कर 
चर्चाएँ ,बात-चीत किया करते थे |कभी-कभी संख्या बढ़ जाती थी ,तब,
छोटे -छोटे गोल बनाकर बैठ जाया करते थे ,और दूर बैठे लोगों से हवा 
में हाथ लहराकर ,अभिवादन का आदान-प्रदान भी कर लेते थे | कभी-कभी 
मन होता तो सभी लोग एक ही बड़े गोले में बैठते थे ,तब बेंतबाजी शुरू 
कर खूब मनोरंजन करते थे ,खान  -पान भी चलता था ,गेय गीत ,गजल,
शास्त्रीय-संगीत ,कविता -अकविता ( कोई नया व्यक्ति /मेहमान भी कुछ 
कहे/पढ़े तो उसका सब उत्साह-वर्धन करते ), कुछ ' कनफुसिया ' भी 
चलती |कक्ष की एक विशेषता थी ,कि,वह  चोबीसों घंटे खुला रहता था 
कुछ लोगो को रात में बैठने का समय मिल पाता था , 
तो एक गड़बड़ भी कभी-कभी हो जाया करती थी ,
कमरे में घुसते और  बातों को पूरा सुने ,
पूरा समझे बिना चलती बहस में कूद पड़ते,फिर क्या होता ?
आधे सोये आधे जागे ,
कुर्सियां जो ,बेतरतीब पड़ीं होती या गोलाकार वे धीरे धीरे आमने-सामने हो जाती 
और चल पड़ती बहस ,कभी सार्थक भी ,लोग खेमों में बटे साफ-साफ दिखते ,
तभी कुछ लोग सिगार,सिगरेट,या पान-बीडी खैनी के लिए बाहर निकल आते 
और तारो-ताज़ा होकर अपनी -अपनी 'साइड' बैठ जाते ,और कुछ दर्शक-दीर्घा 
में बैठ जाते ,और तालियाँ   पीटते आंखे बंद करके ,कुछ आंखे खोलकर ताकि 
कुछ हंगामा -सा होता रहे और T.R.P.बढती रहे |कुछ अन्वेषी कमरे में घुसते 
ही लोगो के लाल-लाल चेहरे देख कर चकरा जाते कि ,ऐसा क्या हो गया है ,जो,
सब तने बैठे हैं | धीरे ---धीरे पड़ताल करने पर पता चलता है ,कि,
कुछ  सामान चोरी हो गया है ,उसकी पड़ताल में लगे हैं लोग ,तभी पता लगता
है कि समानता की वजह से उठ गया था  ,चोरी का कोई इरादा ही नहीं था |
उम्मीद तो यही है कि भ्रान्ति  मिट गयी होगी और कुर्सियां फिर ,पहिले की 
तरह से सज गयीं होंगी ,अब ---
महिपाल   
        

क्या है जिंदगी ?


सांप -सीढ़ी का खेल है ,ये जिंदगी 
( के.पी .त्यागी से उधार ) 
शह और मात का खेल है ,ये जिंदगी 
सुबह,दोपहर,शाम है ,ये जिंदगी 
बदलते मौसम का नाम है ,ये जिंदगी 
न अपनी ख़ुशी से आना है ,जिंदगी 
न अपनी से ख़ुशी से जाना है जिंदगी 
जिन्दगी ,महाभारत है 
जिंदगी,मोहब्बत भी  है
जहाँ दिल लग जाये ,
वह भी है जिंदगी ,
जहाँ दिमाग फस जाये ,
वह भी है जिंदगी ,
कभी किसी से जुड़ जाना ,
है जिंदगी ,
फिर उसी से मुड जाना भी,
है जिंदगी 
कभी जुड़ना ,कभी मुड़ना ,
है जिंदगी ,
सन चालीस से दो हजार ग्यारह 
का सफ़र है ,मेरी जिंदगी 
तुझको सलाम है ये जिन्दगी 
सलामत रहे तू जिंदगी ,
कितने रंग देखें हैं  तूने जिन्दगी 
कितने ढंग बरते है तूने  जिन्दगी
कितनी बकवास थी ये जिन्दगी ,
कितनी खुशगवार थी ये जिन्दगी  ,
सोचो तो सदाबहार है ये जिन्दगी ,
उठापटक है ये जिन्दगी 
प्रवाह है जिन्दगी ,
लहूलुहान भी है जिन्दगी ,
हे भगवन,भगवान  है जिन्दगी 
रामायण ,पुराण है जिन्दगी ,
चलती ,दुकान भी  है जिंदगी ,
'मन चंगा तो कठौती में गंगा भी जिन्दगी ,'
उलझे तारों को सुलझाना भी जिन्दगी ,
सुलझे तारों को उलझाना भी जिन्दगी ,
क्या क्या है जिन्दगी ,
क्या नहीं है जिन्दगी ,
कभी नाम,
कभी बदनाम है जिन्दगी ,
कभी काम ,
कभी विश्राम है जिन्दगी ,
चालाकी भी जिंदगी ,
झंझटो से दूर रहना भी जिन्दगी ,
चुनोती से झूझना भी है जिन्दगी,
शेर ,हाथी, श्रगाल,लोमड़ी ,बन्दर 
 सभी है एक जिन्दगी ,
हाइड्रोजन-ओक्सिजन ,
कार्बन-हाइड्रोजन ,है जिन्दगी ,
इनका रचना संसार भी है जिन्दगी 
इन्ही का लब्बो-लुबाब है जिन्दगी 
चांदनी,जुल्फ ,रक्श, शेर-ओ-शराब,
( फ़िराक साहेब से मुआफी के साथ )
ये भी है जिन्दगी   ,
मासूमियत,बचपन,तरुणाई,
जवानी,प्रोढ़ता या बुढ़ापा ,
अलग-अलग पड़ाव तेरे ,
ये जिन्दगी ,
एक स्वछन्द  सैलाब  ,
की मानिंद बहती  जिन्दगी ,
गाती ,चहकती जिन्दगी |
बस यही है  जिंदगी ,
मेरी,तुम्हारी या किसी की जिंदगी |
----------------ॐ------------------